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इन्द्र॑मि॒वेदु॒भये॒ वि ह्व॑यन्त उ॒दीरा॑णा य॒ज्ञमु॑पप्र॒यन्तः॑। द॒धि॒क्रामु॒ सूद॑नं॒ मर्त्या॑य द॒दथु॑र्मित्रावरुणा नो॒ अश्व॑म् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indram ived ubhaye vi hvayanta udīrāṇā yajñam upaprayantaḥ | dadhikrām u sūdanam martyāya dadathur mitrāvaruṇā no aśvam ||

पद पाठ

इन्द्र॑म्ऽइव। इत्। उ॒भये॑। वि। ह्व॒य॒न्ते॒। उ॒त्ऽईरा॑णाः। य॒ज्ञम्। उ॒प॒ऽप्र॒यन्तः॑। द॒धि॒ऽक्राम्। ऊ॒म् इति॑। सूद॑नम्। मर्त्या॑य। द॒दथुः॑। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। नः॒। अश्व॑म् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:39» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजप्रजाकृत्य को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश राजा के प्रधान और मन्त्री जो (उदीराणाः) उत्तमता को प्राप्त (यज्ञम्) न्याय व्यवहार को (उपप्रयन्तः) प्राप्त होते हुए (उभये) राजा और प्रजाजन (मर्त्याय) अन्य मनुष्य और (नः) हम लोगों के लिये (दधिक्राम्) न्याय धारण करनेवालों की कामना करनेवाले (सूदनम्) जलादि बहने (अश्वम्) और शीघ्र सुख करनेवाले बोध की (वि) विशेष करके (ह्वयन्ते) प्रशंसा करें और उन उत्तम पदार्थों को (ददथुः) तुम देओ वे आप (इन्द्रमिव) बिजुली के सदृश (इत्, उ) ही कृतज्ञ होओ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो राजा और प्रजाजन पक्षपात से रहित, न्याययुक्त धर्म का आचरण करते हैं, वे शत्रुरहित हुए सब के प्रिय होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजाकृत्यमाह ॥

अन्वय:

हे मित्रावरुणा ! य उदीराणा यज्ञमुपप्रयन्त उभये मर्त्याय नोऽस्मभ्यं च दधिक्रां सूदनमश्वं च वि ह्वयन्ते तानुत्तमान् पदार्थान् युवां ददथुस्ताविन्द्रमिवेदु कृतज्ञौ स्यातम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रमिव) विद्युतमिव (इत्) एव (उभये) राजप्रजाजनाः (वि) विशेषेण (ह्वयन्ते) प्रशंसेयुः (उदीराणाः) उत्कृष्टतां प्राप्ताः (यज्ञम्) न्यायव्यवहारम् (उपप्रयन्तः) प्राप्नुवन्तः (दधिक्राम्) न्यायधर्त्तॄणां कामयितारम् (उ) (सूदनम्) क्षरणम् (मर्त्याय) (ददथुः) दद्यातम् (मित्रावरुणा) प्राणोदानवद् राजप्रधानामात्यौ (नः) अस्मभ्यम् (अश्वम्) आशु सुखकरं बोधम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । ये राजप्रजाजनाः पक्षपातरहितं न्याय्यं धर्ममाचरन्ति तेऽजातशत्रवस्सन्तः सर्वप्रिया भवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजे व प्रजाजन भेदभाव न करता न्याययुक्त आचरण करतात ते अजातशत्रू असून सर्वांचे प्रिय होतात. ॥ ५ ॥